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Thursday, June 21, 2012
Saturday, June 16, 2012
Wednesday, April 18, 2012
Nikhilesh Das: How to Clean Oil Spills #INKtalks
About the Speaker
Nikhilesh Das
Das submitted his proposal to the NIF (National Innovation Foundation), and in 2009 they selected his idea for the national level Science Exhibition. They also recommended it for the highly prestigious National Students Award. Das won the competition, and President Smt. Pratibha Devi Singh Patil of India presented him with the award. In 2011, NIF and Das applied to the Government of India for a patent on his inventions.
Das is currently pursuing a degree physics from Cotton College Guwahati.
Posted by Vijaykumar Dave at 3:15 AM
Sunday, January 29, 2012
Saturday, January 28, 2012
अगर वाकई कुछ करना है, तो डिग्रियों को फेंक दीजिए!
चलिए आपको एक दूसरी ही दुनिया में ले चलूं। और आपको सुनाऊं एक 45 साल पुरानी प्रेम-कथा। गरीब लोगों से प्रेम की कथा, जो कि प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम कमाते हैं। मैं एक बेहद संभ्रांत, खडूस, महंगे कॉलेज में पढ़ा, भारत में, और उसने मुझे लगभग पूरी तरह बरबाद कर ही दिया था। सब फिक्स था – मैं डिप्लोमेट, शिक्षक या डॉक्टर बनता – सब जैसे प्लेट में परोसा पड़ा था। साथ ही, मुझे देख कर ऐसा नहीं लगेगा कि मैं स्क्वैश के खेल में भारत का राष्ट्रीय चैंपियन था, तीन साल तक लगातार।
(हंसी)
सारी दुनिया के अवसर मेरे सामने थे। सब जैसे मेरे कदमों में पड़ा हो। मैं कुछ गड़बड़ कर ही नहीं सकता था। और तब, यूं ही, जिज्ञासावश मैंने सोचा कि मैं गांव जाकर रहूं और काम करूं – बस समझने के लिए कि गांव कैसा होता है।
1965 में, मैं बिहार गया। वहां अब तक का सबसे भीषण अकाल पड़ा था। मैंने भूख और मौत का नंगा नाच देखा। पहली बार ठीक मेरे सामने लोग भूख से मर रहे थे। उस अनुभव ने मेरा जीवन बदल डाला। मैं वापस आया और मैंने अपनी मां से कहा, “मैं एक गांव में रहना और काम करना चाहता हूं।” मां कोमा में चली गयी।
(हंसी)
“ये क्या कह रहा है? सारी दुनिया के अवसर तेरे सामने हैं, और भरी थाली में लात मार कर तू एक गांव में रहना और काम करना चाहता है? मुझे समझ नहीं आ रहा है कि आखिर तुझे हुआ क्या है?”
मैंने कहा, “नहीं, मुझे सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मिली है। उसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया है। और मैं कुछ वापस देना चाहता हूं, अपने ही तरीके से।”
“पर तू आखिर एक गांव में करेगा क्या? न रोजगार है, न पैसा है, न सुरक्षा, न ही कोई भविष्य।”
मैंने कहा, “मै गांव में रह कर पांच साल तक कुआं खोदना चाहता हूं।”
“पांच साल तक कुआं खोदेगा? तू भारत के सबसे महंगे स्कूल और कॉलेज में पढ़ा है, और अब पांच साल तक कुआं खोदना चाहता है?” उन्होंने मुझसे बहुत लंबे समय तक बात तक नहीं की, क्योंकि उन्हें लगा कि मैंने अपने खानदान की नाक कटवा दी है।
लेकिन इसके साथ ही, मुझे सीखने को मिला दुनिया का सबसे बेहतरीन ज्ञान और कौशल, जो बहुत गरीब लोगों के पास होता है, मगर कभी भी हमारे सामने नहीं लाये जाते – जो परिचय और सम्मान तक को मोहताज रहते हैं, और जिन्हें कभी बड़े रूप में इस्तेमाल ही नहीं किया जाता। और मैंने सोचा कि मैं बेयरफुट कॉलेज की शुरुआत करुंगा। एक कॉलेज केवल गरीबों के लिए।
गरीब लोग क्या सोचते हैं, ये मुख्य मसला था। यही इस कॉलेज की नींव भी थी। इस गांव में यह मेरा पहला दिन था।
बड़े-बूढ़े मेरे पास आये और पूछा, “क्या पुलिस से भाग कर छुपे हो?”
मैंने कहा, “नहीं।”
(हंसी)
“परीक्षा में फेल हो गये हो?”
मैंने कहा, “नहीं।”
“तो सरकारी नौकरी नहीं मिल पायी होगी?”
मैंने कहा, “वो भी नहीं।”
“तब यहां क्या कर रहे हो? यहां क्यों आये हो? भारत की शिक्षा व्यवस्था तो आपको पेरिस और नयी-दिल्ली और जुरिख के ख्वाब दिखाती है; तुम इस गांव में क्या कर रहे हो? तुम कुछ तो जरूर छिपा रहे हो हमसे?”
मैंने कहा, “नहीं, मैं तो एक कॉलेज खोलने आया हूं, केवल गरीबों के लिए। गरीब लोगों को जो जरूरी लगता है, वही इस कॉलेज में होगा।”
तो बुजुर्गों ने मुझे बहुत नेक और सार्थक सलाह दी। उन्होंने कहा, “कृपा करके, किसी भी डिग्री-होल्डर या मान्यता-प्राप्त प्रशिक्षित व्यक्ति को अपने कॉलेज में मत लाना।”
लिहाजा, ये भारत का इकलौता कॉलेज है, जहां यदि आप पीएचडी या मास्टर हैं, तो आपको नाकारा माना जाएगा। आपको या तो पढ़ाई-छोड़, या भगोड़ा या निलंबित होना होगा … हमारे कॉलेज में आने के लिए। आपको अपने हाथों से काम करना होगा। आपको मेहनत की इज्जत सीखनी होगी। आपको ये दिखाना होगा कि आपके पास ऐसा हुनर है, जिससे लोगों का भला हो सकता है और आप समाज को कोई सेवा प्रदान कर सकते हैं।
तो हमने बेयरफुट कॉलेज की स्थापना की, और हमने पेशेवर होने की नयी परिभाषा गढ़ी।
आखिर पेशेवर किसको कहा जाए? एक पेशेवर व्यक्ति वो है, जिसके पास हुनर हो, आत्म-विश्वास हो और भरोसा हो। जमीन के भीतर पानी का पता लगाने वाला पेशेवर है। एक पारंपरिक दाई एक पेशेवर है। एक कढ़ाई गढ़ने वाला पेशेवर है। सारी दुनिया में ऐसे पेशेवर भरे पड़े हैं। ये आपको दुनिया के किसी भी दूर-दराज गांव में मिल जाएंगे। और हमें लगा कि इन लोगों को मुख्यधारा में आना चाहिए और दिखाना चाहिए कि इनका ज्ञान और इनकी दक्षता विश्व-स्तर की है। इसका इस्तेमाल किया जाना जरूरी है और इसे बाहरी दुनिया के सामने लाना जरूरी है – कि ये ज्ञान और कारीगरी आज भी काम की है।
कॉलेज में महात्मा गांधी की जीवन-शैली और काम के तरीके का पालन होता है। आप जमीन पर खाते हैं, जमीन पर सोते हैं, जमीन पर ही चलते हैं। कोई समझौता, लिखित दस्तावेज नहीं है। आप मेरे साथ 20 साल रह सकते हैं और कल जा भी सकते हैं। और किसी को भी 100 डॉलर महीने से ज्यादा नहीं मिलता है। यदि आप पैसा चाहते हैं, आप बेयरफुट कॉलेज मत आइए। आप काम और चुनौती के लिए आना चाहते हैं, आप बेयरफुट आ सकते हैं। यहां हम चाहते हैं कि आप आएं और अपने आइडिया पर काम करें। चाहे जो भी आपका आइडिया हो, आ कर उस पर काम कीजिए। कोई फर्क नहीं पड़ता, यदि आप फेल हो गये तो। गिर कर, चोट खा कर, आप फिर शुरुआत कीजिए। ये शायद अकेला ऐसा कॉलेज हैं, जहां गुरु शिष्य है और शिष्य गुरु है। और अकेला ऐसा कॉलेज जहां हम सर्टिफिकेट नहीं देते हैं। जिस समुदाय की आप सेवा करते हैं, वो ही आपको मान्यता देता है। आपको दीवार पर कागज का टुकड़ा लटकाने की जरूरत नहीं है, ये दिखाने के लिए कि आप इंजीनियर हैं।
तो जब मैंने ये सब कहा, तो उन्होंने पूछा, “ठीक है, बताओ क्या संभव है। तुम क्या कर रहे हो? ये सिर्फ बतकही है, जब तक तुम कुछ कर के नहीं दिखाते।”
तो हमने पहला बेयरफुट कॉलेज बनाया, सन 1986 में। इसे 12 बेयरफुट आर्किटेक्टों ने बनाया था, जो कि अनपढ़ थे, 1.5 डॉलर प्रति वर्ग फुट की कीमत में। 150 लोग यहां रहते थे, और काम करते थे।
उन्हें 2002 में आर्किटेक्चर का आगा खान पुरस्कार मिला। पर उन्हें लगता था, कि इस के पीछे किसी मान्यता प्राप्त आर्किटेक्ट का हाथ जरूर होगा।
मैंने कहा, “हां, उन्होंने नक्शे बनाये थे, मगर बेयरफुट आर्किटेक्टों ने असल में कॉलेज का निर्माण किया।” शायद हम ही ऐसे लोग होंगे, जिन्होंने 50,000 डॉलर का पुरस्कार लौटा दिया, क्योंकि उन्हें हम पर विश्वास नहीं हुआ, और हमें लगा जैसे वो लोग कलंक लगा रहे हैं, तिलोनिया के बेयरफुट आर्किटेक्टों के नाम पर।
मैंने एक जंगल-अफसर से पूछा – मान्यताप्राप्त, पढ़े-लिखे अफसर से – मैंने कहा, “इस जगह पर क्या बनाया जा सकता है?”
उसने मिट्टी पर एक नजर डाली और कहा, “यहां कुछ नहीं हो सकता। जगह इस लायक नहीं है। न पानी है, मिट्टी पथरीली है।”
मैं कठिन परिस्थिति में था। और मैंने कहा, “ठीक है, मैं गांव के बूढ़े के पास जा कर पूछूंगा कि “यहां क्या उगाना चाहिए?”
उसने मेरी ओर देखा और कहा, “तुम ये बनाओ, वो बनाओ, ये लगाओ, और काम हो जाएगा।”
और वो जगह आज ऐसी दिखती है।
मैं छत पर गया और सारी औरतों ने कहा, “यहां से जाओ। आदमी नहीं चाहिए क्योंकि हम इस तरकीब को आदमियों को नहीं बताना चाहते। ये छत को वाटरप्रूफ करने की तकनीक है।”
(हंसी)
इसमें थोड़ा गुड़ है, थोड़ी पेशाब है और ऐसी कई चीजें जो मुझे नहीं पता है। लेकिन इसमें पानी नहीं चूता है। 1986 से आज तक, पानी नहीं चुआ है। इस तकनीक को, औरतें मर्दों को नहीं बताती हैं।
(हंसी)
ये अकेला ऐसा कॉलेज है, जो पूरी तरह सौर-ऊर्जा पर चलता है। सूरज से ही सारी बिजली आती है। छत पर 45 किलोवाट के पैनल लगे हैं। और सब कुछ अगले 25 सालों तक सिर्फ सौर-ऊर्जा से चल सकता है। तो जब तक दुनिया में सूरज है, हमें बिजली की कोई समस्या नहीं होगी। मगर सबसे बढ़िया बात ये है कि इसे स्थापित किया था एक पुजारी ने, एक हिंदू पुजारी ने, जिसने सिर्फ आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की थी – कभी स्कूल नहीं गया, कभी कॉलेज नहीं गया। इन्हें सौर-तकनीकों के बारे में ज्यादा जानकारी है विश्व के किसी भी और व्यक्ति के मुकाबले, ये मेरी गारंटी है।
भोजन, यदि आप बेयरफुट कॉलेज में आएंगे, आपको सौर-ऊर्जा से बना मिलेगा। मगर जिन लोगों ने उस सौर-चूल्हे को बनाया है, वो स्त्रियां हैं, अनपढ़ स्त्रियां, जो अपने हाथ से अत्यंत जटिल सौर-चूल्हा बनाती हैं। ये परवलय (पैराबोला) आकारा का बिना रसोइये का चूल्हा है। दुर्भाग्य से, ये आधी जरमन हैं, वो इतनी सूक्ष्मता से नाप-जोख करती हैं।
(हंसी)
आपको भारतीय महिलाएं इतनी सूक्ष्म नाप-तोल करती नहीं मिलेंगी। बिलकुल आखिरी इंच तक, वो उस चूल्हे को बना सकती हैं और यहां साठ व्यक्ति दिन में दो बार सौर-चूल्हे का खाना खाते हैं।
हमारे यहां एक दंत-चिकित्सक हैं। वो दादी-मां है, अनपढ़ है और दांतों की डाक्टर हैं। वो दांतों की देखभाल करती हैं करीब 7000 बच्चों के।
बेयरफुट टेक्नॉलाजी
ये 1986 है। किसी इंजीनियर, या आर्किटेक्ट ने इस बारे में नहीं सोचा। मगर हम बारिश के पानी को छत से इकट्ठा कर रहे थे। बहुत ही कम पानी बर्बाद होता है। सारी छतों को जमीन के नीचे बने 400,000 लीटर के टैंक से जोड़ा हुआ है। और पानी बर्बाद नहीं होता। यदि हमें चार साल लगातार भी सूखे का सामना करना पड़े, तो भी हमारे पास पानी होगा, क्योंकि हम बारिश के पानी को इकट्ठा करते हैं।
60 फीसदी बच्चे स्कूल इसलिए नहीं जा पाते, क्योंकि उन्हें जानवरों की देखभाल करनी होती है – भेड़, बकरी – घर के काम। तो हमने सोचा कि एक स्कूल खोला जाए रात में, बच्चो को पढ़ाने के लिए। क्योंकि तिलोनिया के रात के स्कूलों में 75,000 बच्चों से ज्यादा रात को पढ़ चुके हैं, क्योंकि ये बच्चों की सहूलियत के लिए है, ये शिक्षकों की सहूलियत के लिए नहीं है। और हम यहां क्या पढ़ाते हैं? प्रजातंत्र, नागरिकता, अपनी जमीनों की नाप कैसे करें, अगर आपको पुलिस पकड़ ले, तो क्या करें, यदि आपका जानवर बीमार हो जाए, तो क्या करें। यही हम रात के स्कूलों में पढ़ाते हैं। क्योंकि सारे स्कूल मे सौर-ऊर्जा है।
हर पांच साल में, हम चुनाव करते हैं। 6 से ले कर 14 साल तक के बच्चे इस प्रजातांत्रिक प्रणाली में हिस्सा लेते हैं, और वो एक प्रधानमंत्री चुनते हैं। इस वक्त जो प्रधानमंत्री है, उसकी उम्र है 12 वर्ष। वो सुबह 20 बकरियों की देखभाल करती है, मगर शाम को वो प्रधानमंत्री हो जाती है। उसका अपना मंत्रिमंडल है, शिक्षा मंत्री, बिजली मंत्री, स्वास्थ्य-मंत्री। और वो असल में देखभाल करते हैं करीब 150 स्कूलों के 7000 बच्चों की।
पांच साल पहले उसे विश्व बालक पुरस्कार से नवाजा गया था और वो स्वीडन गयी थी। पहली बार गांव से बाहर निकली थी। कभी स्वीडन देखा नहीं। लेकिन आसपास की चीजों से जरा भी प्रभावित नहीं।
स्वीडन की रानी, जो वहीं थीं, मेरी ओर मुड़ी और कहा, “क्या आप इस बच्ची से पूछेंगे कि इतना आत्म-विश्वास कहां से आता है? ये केवल 12 साल की है और किसी से प्रभावित नहीं होती।”
और वो लड़की, जो उनकी बायें ओर है, मेरी ओर मुड़ी, और रानी की आंखों में आंखें डाल कर बोली, “कृपया इन्हें बता दीजिए कि मैं प्रधानमंत्री हूं।”
(हंसी)
जहां साक्षरता बहुत कम है, हम कठपुतलियों का इस्तेमाल करते हैं। कठपुतिलियों के सहारे हम अपनी बात रखते हैं। हमारे पास जोखिम चाचा है, जो करीब 300 साल के हैं। ये मेरे मनोवैज्ञानिक हैं। ये ही मेरे शिक्षक हैं। यही मेरे चिकित्सक हैं। यही मेरे वकील हैं। यही मुझे दान देते हैं। यही धन भी जुटाते हैं, मेरे झगड़े भी सुलझाते हैं। ये मेरे गांव की समस्या का समाधान करते हैं। यदि गांव में तनाव हो, या फिर स्कूलों में हाजिरी कम हो रही हो और अध्यापकों और अभिभावकों के बीच मनमुटाव हो, तो ये कठपुतली अध्यापकों और अभिभावकों को सारे गांव के सामने बुलाती है और कहती है, “हाथ मिलाइए। हाजिरी कम नहीं होनी चाहिए।” ये कठपुतलियां विश्व-बैंक की बेकार पड़ी रिपोर्टों से बनी हैं।
(हंसी)
तो इस विकेंद्रित और पारदर्शी तरीके से, गांवों को सौर-ऊर्जा देने के तरीके से, हमने सारे भारत में काम किया है। लद्दाख से ले कर भूटान तक। सब जगहों पर सौर-ऊर्जा उन लोगों द्वारा लायी गयी, जिन्हें प्रशिक्षण दिया गया।
हम लद्दाख गये। वहां हमने एक महिला से पूछा कि आप, माइनस 40 डिग्री सेंटिग्रेट पर, छत से बाहर आयी हैं, क्योंकि बर्फ से आजू-बाजू के रास्ते बंद है … और हमने पूछा, “आपको क्या लाभ हुआ सौर ऊर्जा से?” और एक मिनट तक सोचने के बाद उसने कहा, “ये पहली बार है कि मैं सर्दियों में अपने पति का चेहरा देख पायी।”
(हंसी)
हम अफगानिस्तान गये। भारत में हमने एक बात ये सीखी कि मर्दों को आप कुछ नहीं सिखा सकते।
(हंसी)
आदमी उच्छृंखल होते हैं। आदमी महत्वाकांक्षी होते हैं। वो एक जगह टिक कर बैठना नहीं पाते और उन सबको एक प्रमाण-पत्र चाहिए होता है।
(हंसी)
दुनिया भर में, यही चाहत है आदमियों की, एक प्रमाण-पत्र चाहिए। क्यों? क्योंकि वो गांव छोड़ना चाहते हैं, और शहर जाना चाहते हैं, नौकरी करने के लिए। तो हमने इसका एक बेहतरीन तरीका निकाला। बूढ़ी दादियों को प्रशिक्षण देने का। अपनी बात दूर-दूर तक फैलाने का आज की दुनिया में क्या तरीका है? टेलीविजन? नहीं। टेलीग्राफ? नहीं। टेलीफोन? नहीं। एक स्त्री को बता दीजिए बस!
(हंसी)
तो हम पहली बार अफगानिस्तान गये और हमने तीन स्त्रियों को चुना और कहा, “हम इन्हें भारत ले जाना चाहते हैं।”
उन्होंने कहा, “असंभव। ये तो अपने कमरे तक से बाहर नहीं निकलती हैं, और तुम भारत ले जाने की बात करते हो।”
मैंने कहा, “मैं एक छूट दे सकता हूं। मैं उनके पतियों को भी साथ ले जाऊंगा।”
तो मैं उनके पतियों को भी ले आया। जाहिर है, औरतें आदमियों से कहीं ज्यादा बुद्धिमान होती हैं। छह महीने के भीतर, हम इन औरतों को कैसे बदल दें? इशारों की भाषा से। तब आप लिखित चीजों पर भरोसा नहीं करते। बोलचाल की भाषा से भी काम नहीं बनता। आप इशारों की भाषा इस्तेमाल करते हैं। और छह महीनों में, वो सौर-इंजीनियर बन गयीं। वो वापस जा कर अपने गांव में सौर-बिजली ले आयीं।
इस स्त्री ने वापस जा कर, पहली बार किसी गांव में सौर-बिजली लगायी, एक कारखाना लगाया। अफगानिस्तान का पहला गांव, जहां सौर-बिजली आयी, तीन औरतों द्वारा किया गया था। ये स्त्री एक महान दादी मां है। 55 साल की उम्र में इसने अफगानिस्तान में 200 घरों को सौर-बिजली दी है। और ये खराब भी नहीं हुई है। ये असल में अफगानिस्तान के इंजीनियरिंग विभाग गयी और वहां के मुख्य-अधिकारी को बता कर आयी कि एसी और डीसी में फर्क क्या होता है। उसे नहीं पता था। इन तीन औरतों ने 27 और औरतों को प्रशिक्षण दिया है और अफगानिस्तान के 100 गांवों में सौर-बिजली लगवा दी है।
हम अफ्रीका गये, और हमने यही किया। ये सारी औरतें जो एक मेज पर बैठी हैं, अलग-अलग आठ देशों की हैं, सब बतिया रही हैं, मगर बिना एक भी शब्द समझे, क्योंकि वो सब अलग-अलग भाषा बोल रही हैं। मगर इनकी भाव-भंगिमाएं गजब की हैं। ये एक दूसरे से बतिया भी रही हैं और सौर-इंजीनियर बन रही हैं।
मैं सियरा ल्योन गया और वहां एक मंत्री से मिला, जो रात के घनघोर अंधेरे में ड्राइविंग कर रहे थे। एक गांव पहुंचा। वापस आया। गांव पहुंचा, और कहा, “इसकी क्या कहानी है?”
उन्होंने कहा, “इन दो दादी-मांओं ने…”
“दादियों ने?” मंत्री साहब को भरोसा ही नहीं हुआ।
“वो कहां गयी थी?”
“भारत से लौट कर आयी हैं।”
वो सीधे राष्ट्रपति के पास गया। उसने कहा, “आपको पता है कि सियरा ल्योन में एक सौर-बिजली युक्त गांव है?”
जवाब मिला, “नहीं।”
अगले दिन आधे से ज्यादा मंत्रिमंडल इन औरतों से मिलने आ गया।
“कहानी क्या है?”
तो उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, “क्या आप मेरे लिए 150 दादियों को प्रशिक्षण दे सकते हैं?”
मैंने कहा, “जी नहीं, महामहिम। मगर ये दे सकती हैं। ये दादियां।”
तो उन्होंने सियरा ल्योन में मेरे लिए पहला बेयरफुट ट्रेनिंग सेंटर बनवाया… और 150 दादियों को सियरा ल्योन में प्रशिक्षण मिल चुका है।
गाम्बिया
हम गाम्बिया में एक दादी मां को चुनने के लिए गये। एक गांव में पहुंचे। मुझे पता था कि मैं किस स्त्री को चुनना चाहता हूं। सब लोग साथ जुटे और उन्होंने कहा, “इन दो स्त्रियों को ले जाएं।”
मैंने कहा, “नहीं, मैं तो उसे ले जाना चाहता हूं।”
उन्होंने कहा, “क्यों? उसे तो भाषा भी नहीं आती। आप उसे जानते नहीं हैं।”
मैंने कहा, “मुझे उसकी भाव-भंगिमाएं और बात करने का तरीका अच्छा लगता है।”
“उसका पति नहीं मानेगा: नहीं होगा।”
तो पति को बुलाया गया। वो आया। अकड़ से चलता हुआ, नेताओं की तरह, मोबाइल लहराता हुआ।
“नहीं होगा।”
“क्यों नहीं?”
“उसे देखो, वो कितनी सुंदर है।”
मैंने कहा, “हां, बहुत सुंदर है।”
“अगर किसी भारतीय आदमी के साथ भाग गयी तो?”
ये उसका सबसे बड़ा डर था।
मैंने कहा, “वो खुश रहेगी, और तुम्हें मोबाइल पर कॉल करेगी।”
वो दादी मां की तरह गयी और एक शेरनी बन कर वापस लौटी। वो हवाई-जहाज से बाहर निकली और प्रेस से ऐसे बतियाने लगी, जैसे ये उसके लिए आम बात हो और हमेशा से यही करती रही हो। उसने राष्ट्रीय प्रेस को सम्हाला और वो प्रसिद्ध हो गयी।
जब मैं छह महीने बाद उस से मिला, मैंने कहा, “तुम्हारा पति कहां है?”
“अरे, कहीं होगा, उससे क्या फर्क पड़ता है।”
(हंसी)
सफलता की कहानी।
(हंसी)
मैं अपनी बात ये कह कर खत्म करना चाहूंगा कि मुझे लगता है कि समाधान आपके अंदर ही होता है। समस्या का हल अपने अंदर ढूंढिए। और उन लोगों की बात सुनिए, जो आपसे पहले समाधान कर चुके हैं। सारी दुनिया में ऐसे लोग मौजूद हैं। चिंता ही मत करिए। विश्व बैंक की बात सुनने से बेहतर है कि आप जमीनी लोगों की बातें सुनें। उनके पास दुनिया भर के हल हैं।
मैं अंत में महात्मा गांधी की कही बात दोहराना चाहता हूं।
“पहली बार वो आपको अनसुना कर देते हैं … फिर वो आप पर हंसते हैं … फिर वो आपसे लड़ते हैं … और फिर आप जीते जाते हैं।”
धन्यवाद।
Posted by Vijaykumar Dave at 12:39 PM
Saturday, September 17, 2011
Tuesday, September 13, 2011
Narendra Modi's speech during students felicitation of Ajmeri Comminity
Posted by Vijaykumar Dave at 12:49 PM